अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है

अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है – राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की कविता
अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है, क्यों न इसे सबका मन चाहे,
थोड़े में निर्वाह यहां है, ऐसी सुविधा और कहां है ?
यहां शहर की बात नहीं है, अपनी-अपनी घात नहीं है,
आडंबर का नाम नहीं है, अनाचार का नाम नहीं है.
यहां गटकटे चोर नहीं है, तरह-तरह के शोर नहीं है,
सीधे-साधे भोले-भाले, हैं ग्रामीण मनुष्य निराले.
एक-दूसरे की ममता है, सबमें प्रेममयी समता है,
अपना या ईश्वर का बल है, अंत:करण अतीव सरल है.
छोटे-से मिट्टी के घर हैं, लिपे-पुते हैं,
स्वच्छ-सुघर हैं गोपद-चिह्नित आंगन-तट हैं,
रक्खे एक और जल-घट हैं. खपरैलों पर बेंले छाई,
फूली-फली हरी मन भाईं,
अतिथि कहीं जब आ जाता है, वह आतिथ्य यहां पाता है.
ठहराया जाता है ऐसे, कोई संबंधी हो जैसे,
जगती कहीं ज्ञान की ज्योति, शिक्षा की यदि कमी न होती
तो ये ग्राम स्वर्ग बन जाते पूर्ण शांति रस में सन जाते.
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