टूटती कड़ियां

कड़ियां जो टूटने लगी हैं अपनों के दरमियान,
कारण यही है शायद बिखरने लगे हैं हम ।
चुप रहें वो तो मैं भी ना बोलूं, आए नहीं तो मैं भी क्यूं जाऊं ।
रूठे हुओं को मनाऊं कितना, रिश्ते मैं ही निभाऊं कितना,
इन छोटी – छोटी बातों में अटकने लगे हैं हम,
कारण यही है शायद बिखरने लगे हैं हम ।
मतों में भेद हो तो मिल बैठ सुलझाया जाए,
मन के भेद को भला क्या किया जाए,
बेवजह के वहम से खुद में सिमटने लगे हैं हम,
कारण यही है शायद बिखरने लगे हैं हम ।
ठोकरें खाते हैं लाख पर तजुर्बा बड़ों का लिया नहीं करते,
सुख – दुःख बांटे वो दो पल भी अपनों को दिया नहीं करते ।
अपने ही आशियाने से यूं भागने लगे हैं हम,
कारण यही है शायद बिखरने लगे हैं हम ।
टूटते हैं पत्ते जब शाखाओं से, आंधियां उड़ा ले जाती हैं उन्हें,
इस मतलबपरस्त दुनिया में कहीं हम भी ना खो जाएं,
इसलिए मेरे दोस्त,मेरे भाई मशविरा है मेरा,
कुछ भी हो, जहां भी रहिये,
एक सिलसिला अपनों से बनाए रखिए ।
©प्रज्ञा भारती
स्वतंत्र लेखिका एवं कवयित्री
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