मिट्टी की महिमा / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

निर्मम कुम्हार की थापी से
कितने रूपों में कुटी-पिटी,
हर बार बिखेरी किन्तु
मिट्टी फिर भी तो नहीं मिटी।
आशा में निश्छल पल जाए, छलना में पड़ कर छल जाए
सूरज दमके तो तप जाए, रजनी ठुमकी तो ढल जाए,
यों तो बच्चों की गुड़िया-सी, भोली मिट्टी की हस्ती क्या.
आंधी आए तो उड़ जाए, पानी बरसे तो गल जाए।
फसलें उगती, फसलें कटती, लेकिन धरती चिर उर्वर है
सौ बार बने, सौ बार मिटे लेकिन धरती अविनश्वर है।
मिट्टी गल जाती पर उसका विश्वास अमर हो जाता है।
विरचे शिव, विष्णु विरंचि विपुल
अगणित ब्रह्माण्ड हिलाए हैं।
पालने में प्रलय झुलाया हैं
गोदी में कल्प खिलाए हैंं।
रो दें तो पतझर आ जाए, हंस दे तो मधु ऋतु छा जाए
झूमें तो नंदन झूम उठे, थिरके तो तांडव शरमाए
यों मदिरालय के प्याले-सी मिट्टी की मोहक मस्ती क्या
अधरों को छूकर सकुचाए, ठोकर लग जाए छहराए।
उनचास मेघ, उनचास पवन, अम्बर अवनि कर देते सम
वर्षा थमती, आंधी रुकती, मिट्टी हँसती रहती हरदम,
कोयल उड़ जाती पर उसका निश्वास अमर हो जाता है
मिट्टी गल जाती पर उसका विश्वास अमर हो जाता है।
मिट्टी की महिमा मिटने में
मिट-मिट हर बार संवरती है
मिट्टी मिट्टी पर मिटती है
मिट्टी मिट्टी को रचती है
मिट्टी में स्वर है, संयम है, होनी अनहोनी कह जाए
हंस कर हालाहल पी जाए, छाती पर सब कुछ सह जाए,
यों तो ताशों के महलों-सी मिट्टी की वैभव बस्ती क्या
भूकम्प उठे तो ढह जाए, बूड़ा आ जाए बह जाए।
लेकिन मानव का फूल खिला,अब से आकर वाणी का वर
विधि का विधान लुट गया स्वर्ग अपवर्ग हो गए निछावर,
कवि मिट जाता लेकिन उसका उच्छ्वास अमर हो जाता है।
मिट्टी गल जाती पर उसका विश्वास अमर हो जाता है।
– शिवमंगल सिंह ‘सुमन’
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