॥साधन पञ्चकम्॥

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॥साधन पञ्चकम्॥
वेदो नित्यमधीयतां तदुदितं कर्म स्वनुष्ठीयतां
  तेनेशस्य विधीयतामपचितिः काम्ये मतिस्त्यज्यताम्‌।
पापौघः परिधूयतां भवसुखे दोषोऽनुसन्धीयतां
  आत्मेच्छा व्यवसीयतां निजगृहात्तूर्णं विनिर्गम्यताम्‌॥१॥

वेदों का नियमित अध्ययन करें, उनमें निर्देशित (कहे गए) कर्मों का पालन करें, उस परम प्रभु के विधानों (नियमों) का पालन करें, व्यर्थ के कर्मों में बुद्धि को न लगायें। समग्र पापों को जला दें, इस संसार के सुखों में छिपे हुए दुखों को देखें, आत्म-ज्ञान के लिए प्रयत्नशील रहें, अपने घर की आसक्ति को शीघ्र त्याग दें ॥१॥
सङ्गः सत्सु विधीयतां भगवतो भक्तिर्दृढाऽऽधीयतां
  शान्त्यादिः परिचीयतां दृढतरं कर्माशु सन्त्यज्यताम्‌।
सद्विद्वानुपसृप्यतां प्रतिदिनं तत्पादुका सेव्यतां
  ब्रह्मैकाक्षरमर्थ्यतां श्रुतिशिरोवाक्यं समाकर्ण्यताम्‌॥२॥

सज्जनों का साथ करें, प्रभु में भक्ति को दृढ़ करें, शांति आदि गुणों का सेवन करें, कठोर कर्मों का परित्याग करें, सत्य को जानने वाले विद्वानों की शरण लें, प्रतिदिन उनकी चरण पादुकाओं की पूजा करें, ब्रह्म के एक अक्षर वाले नाम ॐ के अर्थ पर विचार करें, उपनिषदों के महावाक्यों को सुनें ॥२॥

वाक्यार्थश्च विचार्यतां श्रुतिशिरः पक्षः समाश्रीयतां
  दुस्तर्कात्सुविरम्यतां श्रुतिमतस्तर्कोऽनुसन्धीयताम्‌।
ब्रह्मास्मीति विभाव्यतामहरहर्गर्वः परित्यज्यतां
  देहेऽहंमतिरुझ्यतां बुधजनैर्वादः परित्यज्यताम्‌॥३॥

वाक्यों के अर्थ पर विचार करें, श्रुति के प्रधान पक्ष का अनुसरण करें, कुतर्कों से दूर रहें, श्रुति पक्ष के तर्कों का विश्लेषण करें, मैं ब्रह्म हूँ ऐसा विचार करते हुए मैं रुपी अभिमान का त्याग करें, मैं शरीर हूँ, इस भाव का त्याग करें, बुद्धिमानों से वाद-विवाद न करें ॥३॥
क्षुद्व्याधिश्च चिकित्स्यतां प्रतिदिनं भिक्षौषधं भुज्यतां
  स्वाद्वन्नं न तु याच्यतां विधिवशात्प्राप्तेन सन्तुष्यताम्‌।
शीतोष्णादि विषह्यतां न तु वृथा वाक्यं समुच्चार्यतां
  औदासीन्यमभीप्स्यतां जनकृपानैष्ठुर्यमुत्सृज्यताम्‌॥४॥

भूख को रोग समझते हुए प्रतिदिन भिक्षा रूपी औषधि का सेवन करें, स्वाद के लिए अन्न की याचना न करें, भाग्यवश जो भी प्राप्त हो उसमें ही संतुष्ट रहें| सर्दी-गर्मी आदि विषमताओं को सहन करें, व्यर्थ वाक्य न बोलें, निरपेक्षता की इच्छा करें, लोगों की कृपा और निष्ठुरता से दूर रहें ॥४॥

एकान्ते सुखमास्यतां परतरे चेतः समाधीयतां
  पूर्णात्मा सुसमीक्ष्यतां जगदिदं तद्बाधितं दृश्यताम्‌।
प्राक्कर्म प्रविलाप्यतां चितिबलान्नाप्युत्तरैः श्लिष्यतां
  प्रारब्धं त्विह भुज्यतामथ परब्रह्मात्मना स्थीयताम्‌॥५॥

एकांत के सुख का सेवन करें, परब्रह्म में चित्त को लगायें, परब्रह्म की खोज करें, इस विश्व को उससे व्याप्त देखें, पूर्व कर्मों का नाश करें, मानसिक बल से भविष्य में आने वाले कर्मों का आलिंगन करें, प्रारब्ध का यहाँ ही भोग करके परब्रह्म में स्थित हो जाएँ ॥५॥


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